कल रात छलकते प्याले से,
दो घूँट हलक से क्या उतरी |
बन गयी रात जज्बातों की,
वो शाम फलक से क्या उतरी | |
अंदर में दबा सैलाब भी था ,
अरमानों का एक ख्वाब भी था |
यादों से भरी एक प्याला थी,
अंदर पूरी मधुशाला थी | |
दिल से ही बिखर कर इर्दगिर्द ,
दिल में ही दिल का राज भी था |
मदमस्त जवां सी धडकन में ,
टूटे तारों का साज भी था | |
वो रात भी क्या मतवाली थी , कितनी गहरी और काली थी ……………
अंतः से निकलती थी हाला ,
ले हांथों में जिसकी प्याला |
साकी वो बनी एक बाला थी ,
पर टूटे ख्वाबों की माला थी | |
जिसके पाजेब की छनछन से ,
कर्कश परिभाषित होती थी |
कंगन की खनखन से जिसके,
परिवेश बदलती रोती थी | |
मतवाला सा मैं भागा था ,
जग सोया और मैं जागा था ….
उस रात कबर पर अपने ही,
एक शाम जलाया था मैंने |
एक नाम चुराने की खातिर ,
अरमान जलाया था मैंने | |
पर नहीं मिली मुझको हाला , अब टूट गयी हर एक प्याला …
उस घूँट में क्या कोई जादू था ?
या मेरा मन बेकाबू था ?
वो नशा नशे पे भारी था ?
या दाँव पे कोई जुवारी था ?
वीरान हुई क्यूँ मधुशाला ?
अब दूर खड़ी है क्यूँ बाला ?
अधरों पर मदिरा अब भी है ,
पर न जाने किस प्याले की |
क्यूँ कब्र पे अब भी अपने ही ,
हर शाम जलाया करता हूँ ?
वो नाम चुराने को अब भी ,
अरमान जलाया करता हूँ | |
–उपेन्द्र दुबे
induravisinghj
सितम्बर 16, 2011 @ 10:55:30
वाह! बहुत खू़ब…
लयात्मकता एवं सरसता बरकरार रही,आनंद आया आपकी मधुशाला में आकर…
बधाई…
upendradubey
सितम्बर 16, 2011 @ 23:29:55
बहुत बहुत धन्यवाद इंदु जी…
PN Subramanian
सितम्बर 16, 2011 @ 21:20:36
आनंद सागर में डूबे रहे. इतना सुन्दर की इसे संगीत के धुन पर भी गाया जा सकता है. एक बार कोशिश करें. आभार.
upendradubey
सितम्बर 16, 2011 @ 23:31:12
बहुत बहुत आभार सुब्रमन्यन जी …आपके सुझाव पर निश्चय ही अमल करूँगा ….
Dr.ManojMishra
सितम्बर 16, 2011 @ 22:00:40
बहुत सुंदर ,मैं तो आपकी रचना में खो गया,आभार.
upendradubey
सितम्बर 16, 2011 @ 23:31:50
बहुत धन्यवाद मनोज जी….
rasprabha
सितम्बर 16, 2011 @ 22:05:47
अधरों पर मदिरा अब भी है ,
पर न जाने किस प्याले की |
waah
upendradubey
सितम्बर 16, 2011 @ 23:32:25
आभार रश्मि जी….
Alpana
सितम्बर 16, 2011 @ 23:03:29
pahali baar yahan aayi hun.
achchha likhte hain.
kavita mei lay hain aur bhaav bhi..
Keep writing!
upendradubey
सितम्बर 16, 2011 @ 23:33:27
धन्यवाद अल्पना जी…आप ऐसे ही मार्गदर्शक बने रहिये लेखनी स्वतः ही गति ढूंढ लेगी….
salil varmaa
सितम्बर 16, 2011 @ 23:54:55
पहली बार आया यहाँ पर और दांग हूँ गया शैली में लिखी इस रचना को देखकर.. लयात्मकता ऐसी कि कोई संगीतकार के हत्थे चढ जाए तो एक अमर गीत का रूप ले सकती है!!
उपेन्द्र जी, साधुवाद के पात्र हैं आप!!
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
सितम्बर 17, 2011 @ 00:34:37
आपकी मधुशाला कमाल की है । भाषा व लय गज़ब की हैं ।
upendradubey
सितम्बर 17, 2011 @ 02:00:52
धन्यवाद गिरिजा जी….
upendradubey
सितम्बर 17, 2011 @ 02:41:22
आपने तो फर्श से अर्श पे बिठा दिया सलिल जी ..धन्यवाद….
Smt Asha lata Saxena
सितम्बर 17, 2011 @ 06:56:53
आज पहली बार आपकी रचना पढने को मिली बहुत अच्छी लगी|
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार
upendradubey
सितम्बर 17, 2011 @ 09:58:19
आभार आशा जी….
mahendra verma
सितम्बर 17, 2011 @ 10:39:40
गीत में प्रवाह और लय गजब का है।
भावों और शब्दों का संयोजन भी लाजवाब है।
sharmi
सितम्बर 17, 2011 @ 18:03:57
आप तो दूसरे हरिवंश राय निकले !! क्या खूब लिखी है आपने!!!!! आपकी मधुशाला में सच में शब्दों की मधु बहती है।
……………………………शर्मि