कल पर्वत के पार वही, एक सूरज दौड़ा जाता था |
किरणों की चटकार गगन पर, सहसा छोड़ा जाता था | |
मातम का संगीत परिंदे, चिचिया कर दोहराते थे |
फड़फड़ की बेचैनी भी, पंखों में बसते जाते थे | |
क्यूँ उधार का रंग ओढ़, कल सांझ बहुत इठलाई थी ?
वो प्रहर भी तो ना बीत सका, जब रात दौड कर आई थी | |
रंगों की वो डली यहाँ कल, ऐसे लुटती जाती थी |
धूसर मेघों की श्यामलता, रंगों में सिमटाती थी | |
दुल्हन सा माधुर्य लुटा था |
यौवन का चातुर्य छुटा था | |
धकियाती कल रात प्रवर थी |
अंधियारी वो बात प्रखर थी | |
उहापोह के आँगन में वो, किरणें क्यूँ सिसियाती थी ?
क्यूँ भविष्य भी वर्तमान में, मिलने को बौराती थी ? ?
क्यूँ मलिन पर्वत का सर, यूँ चमक लिए इतराता था ?
क्यूँ समीर यूँ शांत भाव से, बहते भी टकराता था ? ?
वन में वृक्षों की मस्ती भी, कोलाहल बन क्यूँ बिखरी थी ?
क्यूँ बदरी की बूंदों में, हालाहल घुल कर उतरी थी ?
कलकल निर्झर का गीत भी क्यूँ, क्रंदन अरुणोदित लगता था ?
क्यूँ पाहन तट के संबल बन, मन भी अनुमोदित करता था ? ?
स्वप्न साज बन क्यूँ प्रपंच, मन में मादकता भरती थी ?
क्यूँ अकुलाती वो प्यास वहीँ, तट पर रहकर ना बुझती थी ? ?
कल रात वहीँ निर्झर तट पर, मैंने लहरों से बातें की |
गीले उस रेत के दामन में, कुछ आढ़ी तिरछी रेखा दी | |
वो चंद लकीरें मिल कर के, एक नन्हा खाका खिंच गयीं |
थी सुबह धुप की फिक्र किसे, वो तो थी अँखियाँ भींच गयीं | |
–उपेन्द्र दुबे
१३/०१/२०१२
अनाम
जनवरी 13, 2012 @ 22:02:38
bahut pariskrit aur ruhani kavita…..
sangeeta swarup
जनवरी 13, 2012 @ 22:05:37
बहुत संवेदनशील रचना ..कैसी सांझ थी …
मोहित श्रीवास्तव
जनवरी 13, 2012 @ 22:16:18
बहुत ही सुन्दर…
asha
जनवरी 14, 2012 @ 07:11:41
बहुत भावपूर्ण रचना |कभी मेरे ब्लॉग आकांक्षा पर भी आइये |
आशा
rahulpandey "sirish"
जनवरी 14, 2012 @ 13:11:19
bahut hi sundar kavita ,,khas kar aahapao wala padh mujhe kafi cha laga,,,,,sadhubad…..
ranjan zeherila
जनवरी 14, 2012 @ 17:34:29
Waah dubey ji apne is shaili me padya lekhan ko sidhh kar liya hai.aap jaise tarun rachnakar hi nav yug me hindi kavita jagat ke karndhar hain. maa sidhheshwari aur maa sarswati ki kripa rehi to aap bakhuda bahut aage jaayenge aur aapka naam swarn aksharon me ankit hoke sadaiv dadipyaman rehega. shubhkamna
Yashwant Mathur
जनवरी 14, 2012 @ 18:39:46
कल रात वहीँ निर्झर तट पर, मैंने लहरों से बातें की |
गीले उस रेत के दामन में, कुछ आढ़ी तिरछी रेखा दी | |
बहुत खूब सर!
सादर
induravisinghj
जनवरी 14, 2012 @ 21:57:41
गहन रचना उपेन्द्र जी…
रवि कुमार
जनवरी 14, 2012 @ 22:47:36
बेहतर…
SANGAM
जनवरी 15, 2012 @ 13:33:21
बहुत अच्छी रचना है दुबे जी|
Yashwant Mathur
जनवरी 16, 2012 @ 15:36:57
कल 17/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
sanjaydixitsamarpit
जनवरी 16, 2012 @ 21:13:41
गहन अर्थबोध कराती कविता,बहुत सुन्दर
Atul (@aptrivedi)
जनवरी 17, 2012 @ 10:14:09
“वो चंद लकीरें मिल कर के, एक नन्हा खाका खिंच गयीं |
थी सुबह धुप की फिक्र किसे, वो तो थी अँखियाँ भींच गयीं | |”
अति सुन्दर पक्तियां ,
वाह बहुत उम्दा . आपकी रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद शुभकामनायें
reena maurya
जनवरी 17, 2012 @ 15:19:43
sundar ,behtarin rachana hai…
Soma Mukherjee
जनवरी 17, 2012 @ 18:04:53
Hi Upendra I have nominated you for One lovely blog award..if you are interested then please follow the link to know more- http://somkritya.wordpress.com/2012/01/17/one-lovely-blog-award-3/
Ranjan Zeherila
जनवरी 21, 2012 @ 16:00:39
Are Dubey Ji..bade din baad aapke page par aana hua, par yeha to koi halchal hi nahi hai na hi koi nayi rachna. kya baat ho gai hai. kehi koi jali bujhi, lagi bujhi waali baat ho gai hai kya? Take care kijiyega aur jald hi kuchh naya dhamaka kijiye bhai..
सतीश सक्सेना
जनवरी 21, 2012 @ 19:42:13
आप अच्छा लिखते हैं …
शुभकामनायें !
Sonia Parashar
जनवरी 31, 2012 @ 10:56:50
कल रात वहीँ निर्झर तट पर, मैंने लहरों से बातें की |
गीले उस रेत के दामन में, कुछ आढ़ी तिरछी रेखा दी | |
वो चंद लकीरें मिल कर के, एक नन्हा खाका खिंच गयीं |
bahut khoobsurat ahsas,nice