शुक्रवार कि सांझ

जैसे प्रसव का दर्द झेलती बाँझ

दूर भोंपू पे आती अज़ान कि आवाजें

खुदा को जगाती हुई मुर्दा सांसें

फिर भी बज रहे थे मन के नगाड़े

जैसे गिनती बनती हो पहाड़े

 

चंद अंकों का फेरबदल दुनिया को बहला रहा था

पर रात बहादुर मेरी गली में लाठी कि टेक से मोहल्ले को जगा रहा था

मंदिर के पिछवाड़े कुत्ते मिठाइयों कि दावत उड़ा रहे थे

इधर मैली धोती में लिपटे पंडित जी भगवान को नहला रहे थे

लंबी लंबी गाड़ियों कि कतार

जिंदगी कभी न हुई बेजार

उन गाड़ियों से नंगे पैर नीचे उतरते सेठ

तपती दुपहरी में मंदिर कि दीवार से अपनी नंगी पीठ टिकाये १० साल का एक भूखा पेट

 

बचपन का चौराहे पर भीख मांगना

जवानी को दीवारों पर बिना फ्रेम टांगना

बुढापे कि बदमिजाजी

लल्लू कि दूकान पर बिकती पाव भर आजादी

किराये कि धुप बदन पर लपेटे लोग

उधार कि उम्मीदों पर डूबते उतराते शौक

 

एक चम्मच नदी कि धार

सब चलता है यार

आसमान का एक कतरा, उसपर टूटते तारे कि चमक

आधे चांद कि रौशनी और गलियों में कुत्तों के भौंक में घुली बंदूकों कि धमक

 

कोयल कि आधी कुक,

सिगरेट के कस में उडती दिल कि हूक

सूरज कि एक बूँद,

हंसी भी गयी रुंध

मुट्ठी भर जिंदगी ,

खूब सारी संजीदगी

उसे ओढ़े जहाँ तहां बिलबिलाते कुछ नंगे लोग

संस्कारों कि धरोहर तो जैसे बस इनके बाप कि हो दोस्त

टूटते दरख्तों पे जवान होती हरियाली

जिंदगी किस्सों में ही क्यूँ पलती है साली

और उबलते जिस्म पर फटते पैबंद

ईमान कि दूकान पर बेशर्मी कि सुगंध

 

गायब खरीददार

बिकवाली को सारे तैयार

बिकता कौड़ी के मोल था

महंगाई तो जैसे दूर का ढोल था

जात पात धरम आरक्षण हर बालकनी के गमलों में सजे थे

माली बने बस चंद लोगों के मजे थे

 

मेरे कलम कि स्याही आज हिस्सों में बंट गयी

पन्ने पर बेतरतीबी सी खिंच गयी

कलम कि निब भागी चली जाती थी

कागज पर आज मेरी भावनाएं कुछ ऐसे उतर आती थी

 

–उपेन्द्र दुबे(०१/०६/२०१२)