सपाट सड़क, मिजाज कड़क,
बस की घर्घर, हवाएं सरसर
माँ के आंचल की गरमाहट ,
तुम्हारे कदमों की आहट
बच्चों की किलकारी,शहर की अय्यारी
सब कुछ जीवंत था
मन बहुत प्रसन्न था
कैम्प के अहाते दूर से आँखों में नजर आते थे
बस कुछ दिनों की बात है, दिल मिलने को अकुलाते थे
अचानक कुछ हुआ था, शायद कुछ फटा था
टकराया था मैं अगली सीट पर, फिर संभला हटा था
मुड़के देखा तो , रक्त का चरित्र था
शायद सबकुछ विचित्र था
कहीं हाँथ, कहीं जांघें
अधखुली आँखे, कन्धों पर टाँगें
समझ नहीं आया की हुआ क्या है
मेरे हांथों की तस्वीर में भीगा क्या है
शायद जीवन था, कुछ यौवन था
आवाजें आती थीं, जाती थीं
कुछ याद नहीं जैसे सब कुछ बहुत जल्दी भागी थीं
एक हमला था, मुझ पर ये पहला था
आँखों की कोरों से, कुछ बूँदें भी टपकी थी
पर यकीन मानो, मुझे तनिक भी नहीं कसकी थी
डर , दुःख, हताशा, निराशा कुछ भी नहीं
सोच से परे शायद सबकुछ यहीं
पता ही नहीं चला चंद पल के उस फासले में
की मैंने कुछ खोया या सबकुछ या कुछ भी नहीं
हाँथ उठते नहीं थे पैर हिलते नहीं थे , सब जड़वत से थे यहीं
हांथों से तस्वीर छिटक दूर पड़ी थी कहीं
अँधेरे का आलिंगन हौले से करने लगा था बतकही
धीरे धीरे सबकुछ छूटा जाता था
शुन्य के ओट से ही शायद सब कुछ फूटा था
अंत के वो कुछ क्षण बस अफ़सोस देते थे
वो भाव तब भी कसकते थे
मेरे बन्दूक की बट बहुत याद आयी थी
उंगलियां हरकतों के लिए बहुत छटपटाई थीं

अब शायद सबकुछ शांत होगा
कुछ दिनों के लिए सांत्वनाओं का एक नया प्रान्त होगा
लोग बसने को जिसमे लालायित होंगे
नए वाक्य विन्यासों से उसकी सीमाएं आयामित होंगे

मैं सिपाही था और सिपाही ही जाता हूँ
वाक्य विहीन एक अफ़सोस लिए जाता हूँ
की मेरे बन्दूक की गर्माहट मेरे हांथों को को गर छू पाती
तो अफ़सोस गोलियों संग बाहर आ जाती
फिर ये शांत प्रदेश उन्मुक्त होता

मैं अपनी माटी के कर्ज से मुक्त होता
मैं अपनी माटी के कर्ज से मुक्त होता

उपेंद्र दुबे (१५/०२/२०१९)