ठंडा चूल्हा, पेट गरम था
रात का बिस्तर कहाँ नरम था?
ठिठुरन तनिक हवा में अब भी
नंगे बदन पर थोड़ी चुभती
माँ से चिपक कर बच्चा सोया
बाप सुबह चिंता में खोया
नींद अभी योवन को छूती, रात सुबक कर खूब थी रोती
हलकी सी गर्माहट आयी, लगा था जैसे ओढ़ रजाई
कुछ अलाव सी गर्मी थी वह
जीवन की बेशर्मी थी वह
अब लगता था बदन सा जलने
लगी आग हो गोद में पलने
धु धु कर सब जला दिया था
क्यों ऐसा कोई खेल रचा था
माँ की छाती में लिपटा मैं,
बाप की ऊँगली जोर से भींचा
कोई पकड़ खींचा था मुझको ,
शायद कोई था जोर से चीखा
चिंता फ़िक्र स्वप्न और रातें, सब कुछ उड़ने लगा धुवें में
दूर डोर की सर सर गुंजी, पानी छपक रही कुवें में
पानी पानी सब चिल्लाते
आग मगर नहीं कोई बुझाते
बदले का बाजार कहूं मैं?
नव जीवन व्यवहार कहूं मैं ?
मेरा इसमें दोष भला क्या
मुझमे कोई था रोष पला क्या?
जीने से पहले मरना था, अरे विधाता क्यों गढ़ना था?
अब सब कुछ था ख़तम हो चूका, नफरत के बाजार में फूंका
हम चारो की हाड पे अर्पण ,
नेता करते थे अब तरपन
- उपेंद्र दुबे
हाल ही की टिप्पणियाँ