साल के ऊँचे ऊँचे पेड़, उनमे लिपटी जंगली लताएं
महुआ की मादक शुगंध, मतवाली जंगली अदायें
तेंदू के पत्ते,
खुखरी के छत्ते
सरसर की आवाज
जीवन का आगाज
चिचियाते परिंदे
हरे हरे फंदे
धंसती हुई कोलतार की काली चिकनी सड़क
जंगली जानवरों की मदमस्त धडक
धड़ल्ले से गुजरती, एकाध मोटर बस
गूंजता जंगल अजनबी निगाहें बरबस
नंगा बदन,
नीला गगन
बरछी गुलेल, तीर कमान
छटकते हुए लोग अनजान
सरहुल के रंग
करमा के संग
पहाड़ी ढलानों में झोपड़ियों के झुरमुट
कहीं हँसते लोग, कहीं थोड़े गुमशुम
नाच गाना
जीवन का अपनी मर्जी से आना जाना
दूर की एक बस्ती में लगता साप्ताहिक बाजार
बड़ी बेसब्री से रहता था इंतज़ार
कहीं मंगल,कहीं बुध तो कहीं गुरु
यकीन मानिए जीवन के बहुत से रिश्ते होते थे इन्हीं बाजारों में शुरू
रुपयों का सरोकार बहुत कम था
नमक , आटा दाल में ही जीवन गुम था
बहुत दिनों पहले की बात नहीं है ये साहब
पर लगता है जैसे बरसों पहले बन गया सबकुछ अजायब
एक अजीब सी क्रांति ने यहाँ भी अपने पाँव पसारे
लोग वहीँ से बन गए बेचारे
न अब वो जल जंगल जमीन अब अपना रह गया
क्रांति के इस रंग में शायद सबकुछ ढह गया
सड़कों की चिकनाहट में गड्ढों ने दखल दे दी
मदमस्त जीवनधारा एक घुटते तालाब का शकल ले ली
तीर की सर्र खो गयी कहीं पे
गरजते हैं बंदूकों की धमक यहीं पे
न अब वो बाजार है न वहां जाने की ललक
बची है तो बस अपने ही आँगन में गुम जाने की कसक
घरों से बच्चे उठाये जाते है क्रांति के नाम पर
गाँव के गाँव जलाये जाते हैं शांति के नाम पर
आये दिन मौत का खेल अलसुबह शुरू होता है
पर यकीन मानिये कोई नहीं रोता है
साल के वो ऊँचे दरख्त शायद गवाह हैं
पर उनको काटते लोग बेपरवाह हैं
ढलानों से मैदानों तक का सफ़र पाबंद है
दिल दरिया, दिलवाले मूसलचंद हैं
खाकी की आये दिन रंगाई होती है
लाल रंग की ये क्रांति दिनोदिन अंगडाई लेती है
टोलों में बटे मुखिया, आरोप प्रत्यारोपों का दौर
मरते सिपाही, ढोल बजाता चोर
न जाने इस रात की कब होगी भोर
या ऐसे ही गुजरती रहेगी प्रहर पे प्रहर चहुँ ओर
जंगल का चीखना
मना है छिकना
जानवरों का क्रंदन
चिताओं पर सजते चन्दन
बेगुनाहों का खून
क्रांति रही भून
लोगों की हताशा
रोती हुई अभिलाषा
असलाहों का बाजार
जाने कहाँ है सरकार
चलती बसों पर गोलियों के निशान
पेड़ों पर लटके लाल सलाम
ऐसी क्रांति की आवाजें सत्ता के गलियारों में कहाँ पहुंचती है
शायद साड़ी कार्रवाइयां कागजों पर होती हैं
तभी तो होली का रंग यहाँ केवल लाल है
मौत जिन्दगी को फंसाए एक मकड़ी का जाल है
न जाने वो दिन फिर कब लौटेंगे
पलाश के छांव तले बेख़ौफ़ राहगीर बैठेंगे
या यूँ ही फलसफा कागजों पर कविता का रूप ले सोता रहेगा
और नक्सलवाद हर घडी नए नए जीवन का रूप ले धोता रहेगा
–उपेन्द्र दुबे (० ३ /० ७ /२ ० १ ३)
sangeeta swarup
जुलाई 03, 2013 @ 23:11:19
क्रांति के नाम पर त्रासदी ही है …
यशोदा अग्रवाल
जुलाई 04, 2013 @ 13:10:01
आपने लिखा….
हमने पढ़ा….
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए शनिवार 06/07/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
पर लिंक की जाएगी.
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ….
लिंक में आपका स्वागत है .
धन्यवाद!
Dayanand
जुलाई 07, 2013 @ 23:32:01
सनसनाती हुई कविता
उपेन्द्र दुबे
जुलाई 08, 2013 @ 20:28:35
टूटे फूटे शब्दों की ये उलझन आप सबों को पसंद आई …धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ ..मन से ..आपकी ये टिप्पणियां आपसे साक्षात् भेंट करवाती हैं ..यकीन मानिये ।
सादर
उपेन्द्र दुबे
Kishore Nigam
जुलाई 09, 2013 @ 18:22:34
शांत, स्वयं में संतुष्ट, विभिन्न स्नेहिल रंगों से खेलते क्षेत्र में , लाल क्रांति के नाम पर आये नक्सलवाद की तबाही का और सरकार की अकर्मण्यता का सजीव और मार्मिक चित्रण :——
“बेगुनाहों का खून,क्रांति रही भून
लोगों की हताशा,रोती हुई अभिलाषा
असलाहों का बाजार, जाने कहाँ है सरकार”
साथ ही सोशल मीडिया के तथाकथित बुद्धिजीवियों के आत्मश्लाघा के विस्तार की निर्थकता को इंगित करती , निराश की रेखाएं :——–
“न जाने वो दिन फिर कब लौटेंगे
पलाश के छांव तले बेख़ौफ़ राहगीर बैठेंगे
या यूँ ही फलसफा कागजों पर कविता का रूप ले सोता रहेगा
और नक्सलवाद हर घडी नए नए जीवन का रूप ले धोता रहेगा ”
——–निशचय ही अत्यंत सार्थक और सामजिक उत्तरदायित्व को निभाती , उत्रिष्ट रचना ।
———किशोर निगम