मैं रोज गुजरता रहता हूँ …

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आहों में कराहों में,
उन रूठी हुई निगाहों में
अभिशप्त शप्त परवाहों में
मैं रोज गुजरता रहता हूँ

दग्ध रात की बाँहों में
कुछ उजड़ी सी उन राहों में
न सोता हूँ न रोता हूँ
बस टूटे वक़्त संजोता हूँ
मैं रोज गुजरता रहता हूँ

एक चादर सी बिछ जाती है
जब रात याद वो आती है
उस चादर के टूटे धागे
पैबंद में सिलते रहते हैं
जाने क्या कुछ कुछ कहते हैं

न वो समझें न मैं समझूं
फिर किससे क्या भला कह दूं
अनजाना सा बस मौन सा है
जाने पहचान ये कौन सा है
बस इसी गाँठ में उलझ सुलझ
हर रोज उलझता रहता हूँ
मैं रोज गुजरता रहता हूँ

कुछ खोया था लुट जाने को
कुछ पाया था गुम जाने को
वो दोनों परदे उठे हुए हैं
कोरों पर कुछ फटे हुए हैं
फड़फड़ की वो दस्तक अक्सर रोज रात को होती है
एक मौज कहीं की तनहा तनहा दुबक साथ में सोती है

गुमशुम चिल्लाती है कानों में
जाने क्यूँ अकुलाती है
पकड़ हाथ जब कारण पूछूं
धीरे से सकुचाती है
उहापोह की कलि पुष्प है
अमन चैन की डली रुष्ट है
सघन उजाड़ मुदित मधुबन है
विरह विकल बस दो चितवन है
उसी मंजरी की करवट में
कुछ पाता खोता रहता हूँ
मैं रोज गुजरता रहता हूँ

–उपेन्द्र दुबे (१४/०५ /२०१३ )

तुम्हारा जाना …

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वो रात थी ?

या तुम्हारे आँखों से छिटका काजल ?

सरकती पवन थी?

या तुम्हारा लहराता आँचल ?

लबों की फड़फड़ या पत्तियों का खड़कना ?

तुम्हारे साँसों की धौंकनी थी?

या मेरे दिल का धडकना ??

अँधेरे में वो झिलमिल, तुम्हारे अंगूठी के नग की थी

मैंने समझा था जैसे चांदनी कोई ठग सी थी

खुशबू का एक झोंका मेरे कमरे तक आया था

शायद घर को तुम्हारा जाना न भाया था

अब भी वो महक जब तब आती है

जैसे सोये ख्वाब फिर से जगाती है

तुम्हारे आँखों में कल कायनात बसी थी

मेरे आंगन में उस पल को टीटही भी हंसी थी

कल ही तो तुम्हारे पायलों की छनक,

रुनझुन एक परी की लगी |

मटमैली आँखें भी तुम्हारी,

कुछ कुछ भरी सी लगी | |

शायद खुशियों का कोई रेला था

तभी तो कल दरवाजे पर तुम्हारे मेला था

साफे में शौगात बाँधे  लोग खड़े थे

दीवारों पर तुम्हारे कल तारे जड़े थे

फलक उतरा सा लगता था, तुम्हारे आँगन में

जैसे खुशियाँ मचली सी हों, तुम्हारे दामन में

कल की रात थोड़ी अजीब थी

थोड़ी बिखरी बेतरतीब थी

तुम्हारे बदन पर हल्दी क्या पियराई

मेरे हिस्से की खुशियाँ कुछ शरमाई

तुम्हारे हाथो की मेहंदी का सुखना

मेरे जीवन का मुझसे रूठना

तुम्हारे आँगन के वो फेरे

जैसे अंतिम कर्मठ हो मेरे

सुबह अंजुली में, चावल का वो अर्पण

बुझती  वेदी पे, मेरा तर्पण

कहारों का पालकी को कंधा देना

कुछ ख्वाबों का मेरी, मुझको दगा देना

मेरी खिड़की से गुजरती वो बारात

गलियों में कुचलता अपना साथ

मैंने सबकुछ देखा था अपनी खिड़की से

शायद कुछ कहा भी था, अपनी नज़रों में बैठी उस लड़की से

पर शहनाई कुछ ज्यादा गूंजी थी

बातें तुम तक न पहुंची थी

उन्हीं शब्दों को समेटता

अब भी जिए जाता हूँ

तुम्हारी खुशियों को अपने आंसूं में घोल अब तक मैं पिए जाता हूँ

जिंदगी का खारापन कुछ कम लगता है

सबकुछ जीवन में अब नम लगता है

कौवे कुकियाते हैं

भवंरे मिमियाते हैं

कोयल घबराती है

चुप सी रह जाती है

रात ढलती नहीं

सांस पिघलती नहीं

सबकुछ ठहरा सा है

शायद पहरा सा है

बातों का रेला नहीं गुजरता है कानों से

पर मैं अकेला अब भी ठहरता हूँ सुनसानों में

अब वो गलियाँ अनजानी लगती हैं

पर न जाने क्यूँ …

मेरी साँसे फिर भी  दीवानी लगती हैं

न जाने क्यूँ …

–उपेन्द्र दुबे (१७/०५/२०१२)

एक सांझ ….

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कल पर्वत के पार वही, एक सूरज दौड़ा जाता था |

किरणों की चटकार गगन पर, सहसा छोड़ा जाता था | |

मातम का संगीत परिंदे, चिचिया कर दोहराते थे |

फड़फड़ की बेचैनी भी, पंखों में बसते जाते थे | |

क्यूँ उधार का रंग ओढ़, कल सांझ बहुत इठलाई थी ?

वो प्रहर भी तो ना बीत सका, जब रात दौड कर आई थी | |

रंगों की वो डली यहाँ कल, ऐसे लुटती जाती थी |

धूसर मेघों की श्यामलता, रंगों में सिमटाती  थी | |

दुल्हन सा माधुर्य लुटा था |

यौवन का चातुर्य छुटा था | |

धकियाती कल रात प्रवर थी |

अंधियारी वो बात प्रखर थी | |

उहापोह के आँगन में वो, किरणें क्यूँ सिसियाती थी ?

क्यूँ भविष्य भी वर्तमान में, मिलने को बौराती थी ? ?

क्यूँ मलिन पर्वत का सर, यूँ चमक लिए इतराता था ?

क्यूँ समीर यूँ शांत भाव से, बहते भी टकराता था ? ?

वन में वृक्षों की मस्ती भी, कोलाहल बन क्यूँ बिखरी थी ?

क्यूँ बदरी की बूंदों में, हालाहल घुल कर उतरी थी ?

कलकल निर्झर का गीत भी क्यूँ, क्रंदन अरुणोदित लगता था ?

क्यूँ पाहन तट के संबल बन, मन भी अनुमोदित करता था ? ?

स्वप्न साज बन क्यूँ प्रपंच, मन में  मादकता भरती थी ?

क्यूँ अकुलाती वो प्यास वहीँ, तट पर रहकर ना बुझती थी ? ?

कल रात वहीँ निर्झर तट पर, मैंने लहरों से बातें की |

गीले उस रेत के दामन में, कुछ आढ़ी तिरछी रेखा दी | |

वो चंद लकीरें मिल कर के, एक नन्हा खाका खिंच गयीं |

थी सुबह धुप की फिक्र किसे, वो तो थी अँखियाँ भींच गयीं | |

–उपेन्द्र दुबे

१३/०१/२०१२